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संत शिरोमणि श्री रविदास जी
संत श्री रविदास जी की लेखन शैली व उनकी रचनाओं में हमेशा मानवीय एकता व समानता पर बल दिया जाता था। वे मानते थे कि जब तक हमारा अंतर्मन पवित्र नहीं होगा, तब तक हमें ईश्वर का सानिध्य नहीं मिल सकता है। दूसरी ओर, यदि हमारा ध्यान कहीं और लगा रहेगा, तो हमारा मुख्य कर्म भी बाधित होगा तथा हमें कभी-भी लक्ष्य की प्राप्ति नहीं हो सकती है। जो बातें उन्होंने स्वयं पर आजमाई, उन्हें ही रचनाओं के माध्यम से आम जन को बताया। उनके जीवन की एक घटना से पता चलता है कि वे गंगा स्नान की बजाय खुद के कार्य को संपन्न करने को प्राथमिकता देते हैं।
संत शिरोमणि रविदास जी के जीवन से संबंधित प्रेरक प्रसंग।-
१. श्रम ही है साधन
संत श्री रविदास जी ने कहा कि लगातार कर्म पथ पर बढ़ते रहने पर ही सामान्य मनुष्य को मोक्ष की राह दिखाई दे सकती है। अपने पदों व साखियों में वे किसी भी लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए श्रम को ही मुख्य आधार बताते हैं। इसलिए वे मध्यकाल में भी अपनी बातों से आधुनिक कवि समान प्रतीत होते हैं। वे लिखते हैं, 'जिह्वा सों ओंकार जप हत्थन सों करि कार /राम मिलहिं घर आइ कर कहि संत श्री रविदास जी विचार।' एक पद में नाम की महत्ता को बताते हुए राम नाम के जप पर जोर देते हैं, जिससे सगुण ब्रह्म की शक्तिशाली सत्ता का मोह टूट जाता है और शासन की जगह समानता का नारा बुलंद होता है। अपने समय के नानक, कबीर, सधना व सेन जैसे संत कवियों की तरह संत श्री रविदास जी भी इस बात को समझते हैं कि सगुण अवतार जहां शासन व्यवस्था को जन्म देता है, वहीं निर्गुण राम समानता के मूल्य के साथ खड़े होते हैं, जो अपनी चेतना में एक आधुनिक मानस को निर्मित करते हैं। 'नामु तेरो आरती भजनु मुरारे / हरि के नाम बिनु झूठै सगल पसारे ..' जैसे पद के आधार पर संत श्री रविदास जी अपने समय की शक्तिशाली प्रभुता को उसके अहंकार का बोध कराते हैं तथा समान दृष्टि रखने वाले लोगों का आह्वान करते हैं, जो उन्हें आज भी प्रासंगिक बनाता है।
२. समान अवसर का सर्मथन
बनारस के दक्षिणी छोर पर स्थित सीरगोवर्धन में छह शताब्दी पहले पैदा हुए संत रविदास। इनके 40 पद 'गुरुग्रंथ साहब' में न सिर्फ शामिल किए गए, बल्कि लोक जीवन में खूब प्रसिद्ध भी हुए। संत श्री रविदास जी के साथ जातिगत भेदभाव खूब हुआ था, जिसका दर्द उनकी रचनाओं और उनके इर्द-गिर्द बुनी गई कथाओं में भी देखा जा सकता है। उनकी विद्वता को बड़े-बड़े विद्वान भी स्वीकार कर उन्हें दंडवत करते हैं। यह उनके पदों व साखियों में देखा जा सकता है। 'अब विप्र परधान करहि दंडवति /तरे नाम सरनाई दासा' जैसे पद इसका साक्ष्य प्रस्तुत करते हैं। यही कारण है कि असमानता, अहंकार और अवसाद की स्थितियों से गुजरते हुए संत श्री रविदास जी अपने समय में एक ऐसे बेगमपुर (बेगमपुरा सहर को नाऊं, दुख अन्दोख नहीं तिहि ठाऊं) की परिकल्पना करते हैं।
३ संत श्री रविदास जी कैसे बने संत शिरोमणि
15वीं सदी के महान समाज सुधारक संत श्री रविदास जी के पिता जूते बनाने का काम करते थे। श्री रविदास जी उन्हीं के साथ रहकर उनके काम में हाथ बंटाते थे। श्री रविदास जी का मन लेकिन शुरू से ही साधु-संतों के साथ ज्यादा लगता था। कहते हैं इस वजह से वह जब भी किसी साधु-संत या फकीर को नंगे पैर देखते तो उससे बिना पैसे लिए ही चप्पल बनाकर दे आते। उनकी इस आदत से श्री रविदास जी के पिताजी काफी नाराज रहते। श्री रविदास जी के पिताजी ने एक दिन उनकी इसी आदत से परेशान होकर गुस्से में उन्हें घर से निकाल दिया। घर से निकाले जाने के बाद श्री रविदास जी ने अपनी एक छोटी से कुटिया बनाई और जूते-चप्पल बनाने और उसके मरम्मत का काम शुरू कर दिया। साधु-संतों की सेवा को लेकर हालांकि उनकी आदत ऐसे ही बनी रही। इस दौरान श्री गुरु श्री रविदास जी समाज में उस समय जारी बुराइयों, छूआ-छूत आदि पर अपने दोहों और कविताओं के जरिए चुटीले तंज भी करते थे। श्री रविदास जी समाज के लोगों से घुलने-मिलने और उनके व्यवहार के कारण हमेशा ही उनके आसपास लोगों का जमावड़ा लगना शुरू हो गया था। साथ ही उनकी लोकप्रियता भी बढ़ती गई।"
४. मन चंगा तो कठौती में गंगा
एक दिन एक ब्राह्मण संत रविदास के द्वार आये और कहा कि गंगा स्नान करने जा रहे हैं एक जूता चाहिए। इन्होंने बिना पैसे लिया ब्राह्मण को एक जूता दे दिया । इसके बाद एक सुपारी ब्राह्मण को देकर कहा कि, इसे मेरी ओर से गंगा मैया को दे देना। ब्राह्मण रविदास जी द्वारा दिया गया सुपारी लेकर गंगा स्नान करने चल पड़ा। गंगा स्नान करने के बाद गंगा मैया की पूजा की और जब चलने लगा तो अनमने मन से रविदास जी द्वारा दिया सुपारी गंगा में उछाल दिया। तभी एक चमत्कार हुआ गंगा मैया प्रकट हो गयीं और रविदास जी द्वारा दिया गया सुपारी अपने हाथ में ले लिया। गंगा मैया ने एक सोने का कंगन ब्राह्मण को दिया और कहा कि इसे ले जाकर रविदास को दे देना। ब्राह्मण भाव विभोर होकर रविदास जी के पास आया और बोला कि आज तक गंगा मैया की पूजा मैने की लेकिन गंगा मैया के दर्शन कभी प्राप्त नहीं हुए। लेकिन आपकी भक्ति का प्रताप ऐसा है कि गंगा मैया ने स्वयं प्रकट होकर आपकी दी हुई सुपारी को स्वीकार किया और आपको सोने का कंगन दिया है। आपकी कृपा से मुझे भी गंगा मैया के दर्शन हुए। इस बात की ख़बर पूरे काशी में फैल गयी। रविदास जी के विरोधियों ने इसे पाखंड बताया और कहा कि अगर रविदास जी सच्चे भक्त हैं तो दूसरा कंगन लाकर दिखाएं। विरोधियों के कटु वचनों को सुनकर रविदास जी भक्ति में लीन होकर भजन गाने लगे। रविदास जी चमड़ा साफ करने के लिए एक बर्तन में जल भरकर रखते थे। इस बर्तन में रखे जल से गंगा मैया प्रकट हुई और दूसरा कंगन रविदास जी को भेंट किया। रविदास जी के विरोधियों का सिर नीचा हुआ और संत रविदास जी की जय-जयकार होने लगी। इसी समय से यह दोहा प्रसिद्ध हो गया।
'मन चंगा तो कठौती में गंगा।'
५. सेठ ने किया अमृत का तिरस्कार
संत महापुरुष समस्त समाज के लिए होते हैं। उनका संबंध केवल एक जाति या वर्ण के साथ नहीं होता। वे सर्वहित के लिए और सबको सही राह पर चलने के लिए प्रेरणा देते हैं। गुरु संत श्री रविदास जी के पवित्र जीवन और साधुता को देखते हुए चारों वर्णों के लोग सत्संग में आने लगे। गुरु श्री संत श्री रविदास जी जी पवित्र आहार, पवित्र कर्म और पवित्र विचारों की बार-बार चर्चा करते थे। एक दिन एक धनवान सेठ गुरु श्री संत श्री रविदास जी जी के सत्संग में आया। उसने अमीर-गरीब हर वर्ग के लोगों को गुरु श्री संत श्री रविदास जी जी का उपदेश सुनते हुए देखा। सेठ के मन पर यह सब देखकर प्रभाव पड़ा और वह भी सत्संग सुनने के लिए बैठ गया। गुरु श्री संत श्री रविदास जी जी ने कहा कि मनुष्य तन बहुत अनमोल है और यह तन बहुत दुर्लभ है --
दुलंभ जन्म पुनि फल पाइओ विरथा जात अविवेके।
इस अनमोल जन्म को प्रभु बंदगी में लगाकर सफल बनाना चाहिए। प्रभु भक्ति पर सब जातियों और वर्णों का अधिकार है। कोई किसी भी जाति या वर्ण का आदमी हो, वह प्रभु भक्ति में लीन होकर महान् बन जाता है।
ब्राह्मन बैस सुद अरु खत्री।
डोम चंडार मलेछ मन सोइ।
होई पुनीत भगवंत भजन ते।
आपु तारि तारे कुल देइ ॥
भजन करनेवाला ब्राह्मण, वैश्य, शूद्र, क्षत्रिय, डोम, चंडाल और म्लेच्छ अथवा किसी भी जाति का हो, प्रभु की भक्ति के द्वारा भवसागर से पार हो सकता है और अपने परिजनों को भी उबार सकता है।
सत्संग समाप्त होने के बाद श्रद्धालुओं के बीच कठौती में से अमृत बाँटा गया, जिसमें गुरु श्री संत श्री रविदास जी जी चमड़ा भिगोते थे। सेठ ने चरणामृत तो ले लिया, परंतु उसे पीने के बजाय सिर के पीछे से फेंक दिया। चरणामृत का कुछ अंश उसके कपड़ों पर पड़ गया। सेठ ने घर जाकर कपड़ों को अपवित्र जानकर एक भंगी को दान कर दिया। भंगी ने ज्यों ही उन कपड़ों को धारण किया, उसका शरीर कांति से चमकने लगा और सेठ को कुष्ठ रोग हो गया। उधर सेठ ने हकीम और वैद्यों से बहुत दवाई कराई, पर कुष्ठ रोग ठीक नहीं हुआ। जब सेठ को ध्यान आया कि उसने किसी संत पुरुष का अनादर किया है, जिसके कारण उसे यह कष्ट उठाना पड़ रहा है तब वह दु:खी होकर गुरु श्री संत श्री रविदास जी जी की शरण में गया। उदार हृदय गुरु श्री संत श्री रविदास जी जी ने सेठ को क्षमा कर दिया और वह फिर से स्वस्थ हो गया।
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