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Showing posts from August, 2022

इतिहास के झरोखों से - देशद्रोही का वध

                            by  हिंदी ओलंपियाड फाउंडेशन  |   Hindi Olympiad Foundation देशद्रोही का वध  स्वाधीनता प्राप्ति के प्रयत्न में लगे क्रांतिकारियों को जहां एक ओर अंग्रेजों ने लड़ना पड़ता था, वहां कभी-कभी उन्हें देशद्रोही भारतीय, यहां तक कि अपने गद्दार साथियों को भी दंड देना पड़ता था। बंगाल के प्रसिद्ध अलीपुर बम कांड में कन्हाईलाल दत्त,  सत्येन्द्रनाथ बोस तथा नरेन्द्र गोस्वामी गिरफ्तार हुए थे। अन्य भी कई लोग इस कांड में शामिल थे, जो फरार हो गयेे। पुलिस ने इन तीन में से एक नरेन्द्र को मुखबिर बना लिया। उसने कई साथियों के पते-ठिकाने बता दिये। इस चक्कर में कई निरपराध लोग भी पकड़ लिये गये। अतः कन्हाई और सत्येन्द्र ने उसे सजा देने का निश्चय किया और एक पिस्तौल जेल में मंगवा ली। सुरक्षा की दृष्टि से पुलिस ने नरेन्द्र गोस्वामी को जेल में सामान्य वार्ड की बजाय एक सुविधाजनक यूरोपीय वार्ड में रख दिया था। एक दिन कन्हाई बीमारी का बहाना बनाकर अस्पताल पहुंच गया। कुछ दिन बाद सत्येन्द्र भी पेट दर्द के नाम पर वहां आ गया। अस्पताल उस यूरोपीय वार्ड के पास था, जहां नरेन्द्र रह रहा था। एक-दो दिन बाद स

हॉकी के जादूगर - मेजर ध्यानचन्द

                            by  हिंदी ओलंपियाड फाउंडेशन  |   Hindi Olympiad Foundation मेजर ध्यानचन्द  विश्व में भारत को हॉकी का सिरमौर बनाने का श्रेय जिन्हें जाता है, उन मेजर ध्यानचन्द का जन्म प्रयाग, उत्तर प्रदेश में 29 अगस्त, 1905 को हुआ था। उनके पिता सेना में सूबेदार थे। उन्होंने 16 साल की अवस्था में ध्यानचन्द को भी सेना में भर्ती करा दिया। वहाँ वे कुश्ती में बहुत रुचि लेते थे, पर सूबेदार मेजर बाले तिवारी ने उन्हें हॉकी के लिए प्रेरित किया। इसके बाद तो वे और हॉकी एक दूसरे के पर्याय बन गये। वे कुछ दिन बाद ही अपनी रेजिमेण्ट की टीम में चुन लिये गये। उनका मूल नाम ध्यानसिंह था, पर वे प्रायः चाँदनी रात में अकेले घण्टों तक हॉकी का अभ्यास करते रहते थे। इससे उनके साथी तथा सेना के अधिकारी उन्हें ‘चाँद’ कहने लगे। फिर तो यह उनके नाम के साथ ऐसा जुड़ा कि वे ध्यानसिंह से ध्यानचन्द हो गये। आगे चलकर वे ‘दद्दा’ ध्यानचन्द कहलाने लगे। चार साल तक ध्यानचन्द अपनी रेजिमेण्ट की टीम में रहे। 1926 में वे सेना एकादश और फिर राष्ट्रीय टीम में चुन लिये गये। इसी साल भारतीय टीम ने न्यूजीलैण्ड का दौरा किया। इस दौरे

इतिहास के झरोखों से - चित्तौड़ का पहला जौहर

                           by  हिंदी ओलंपियाड फाउंडेशन  |   Hindi Olympiad Foundation  चित्तौड़ का पहला जौहर  जौहर की गाथाओं से भरे पृष्ठ भारतीय इतिहास की अमूल्य धरोहर हैं। ऐसे अवसर एक नहीं, कई बार आये हैं, जब हिन्दू ललनाओं ने अपनी पवित्रता की रक्षा के लिए ‘जय हर-जय हर’ कहते हुए हजारों की संख्या में सामूहिक अग्नि प्रवेश किया था। यही उद्घोष आगे चलकर ‘जौहर’ बन गया। जौहर की गाथाओं में सर्वाधिक चर्चित प्रसंग चित्तौड़ की रानी पद्मिनी का है, जिन्होंने 26 अगस्त, 1303 को 16,000 क्षत्राणियों के साथ जौहर किया था। पद्मिनी का मूल नाम पद्मावती था। वह सिंहलद्वीप के राजा रतनसेन की पुत्री थी। एक बार चित्तौड़ के चित्रकार चेतन राघव ने सिंहलद्वीप से लौटकर राजा रतनसिंह को उसका एक सुंदर चित्र बनाकर दिया। इससे प्रेरित होकर राजा रतनसिंह सिंहलद्वीप गया और वहां स्वयंवर में विजयी होकर उसे अपनी पत्नी बनाकर ले आया। इस प्रकार पद्मिनी चित्तौड़ की रानी बन गयी। पद्मिनी की सुंदरता की ख्याति अलाउद्दीन खिलजी ने भी सुनी थी। वह उसे किसी भी तरह अपने हरम में डालना चाहता था। उसने इसके लिए चित्तौड़ के राजा के पास धमकी भरा संद

एक जीवन ऐसा भी - राजगुरु

                          by  हिंदी ओलंपियाड फाउंडेशन  |   Hindi Olympiad Foundation अमर शहीद : राजगुरु भारत को गुलामी से मुक्त करवाने के लिए कई क्रांतिकारियों ने अपना जीवन हमारे देश के लिए कुर्बान किया है। इन्हीं क्रांतिकारियों के बलिदान के कारण से ही हमारा देश आजाद हुआ था।  हमारे देश के क्रांतिकारियों के नामों की सूची में अनगिनत क्रांतिकारियों के नाम मौजूद हैं और इन्हीं क्रांतिकारियों में से एक नाम ‘राजगुरु’ जी का भी है। जिन्होंने अपने जीवन को हमारे देश के लिए समर्पित कर दिया था। राजगुरू के नाम से प्रसिद्ध राजगुरू का असल में नाम शिवराम हरि राजगुरू है। वे महराष्ट् के रहने वाले थे। भगत सिंह व सुखदेव के साथ ही राजगुरु को भी फांसी की सजा दी गई थी। राजगुरु का जन्म 24 अगस्त 1908 को पुणे, महाराष्ट्र में हुआ था। लेकिन सिर्फ 6 साल की उम्र में ही राजगुरु के सिर से पिता का साया उठ गया था। पिता के निधन के बाद वे विद्या अध्ययन और संस्कृत सीखने के लिए वाराणसी आ गए थे।  महज 15 वर्ष की आयु में राजगुरु जी को हिन्दू धर्म के ग्रंथो का अच्छी खासा ज्ञान  भी हो गया था और ये  कहा जाता है कि इन्होंने सिद्धा

एक जीवन ऐसा भी - भारत रत्न बिस्मिल्लाह खान

                         by  हिंदी ओलंपियाड फाउंडेशन  |   Hindi Olympiad Foundation  मशहूर शहनाई वादक भारत रत्न बिस्मिल्लाह खान भारतीय संस्कृति में शास्त्रीय संगीत का विशेष महत्व है। शास्त्रीय संगीत को ही क्लासिकल म्यूजिक के नाम से भी जाना जाता है। संगीत एक विशेष साधना है, यह कलाकार की लगन, रियाज, जोश पर निर्भर करता है कि वह अपनी प्रतिभा से देश का नाम कैसे रोशन करे। बिस्मिल्ला खां सांप्रदायिक सौहार्द के पोषक रहे। उन्होंने सदैव शास्त्रीय संगीत के द्वारा ही भारत की अखंडता को सुदृढ़ बनाने में अपनी अहम भूमिका अदा की। बिस्मिल्ला खां का जन्म, बिहार के एक गांव-डुमरांव के, ऐसे परिवार में हुआ जिनकी पीढिय़ां ने शास्त्रीय संगीत के संस्कारों को सहजता से संजोया रखा। उनके पूर्वज भी पांच पीढिय़ों से राज दरबारों में संगीतकार थे।     एक कलाकार वास्तव में ईश्वर की सच्ची नियामत होती है। जो कि धर्म जात-पात से ऊपर उठकर मानवता वादी विचार धारा का समर्थन कर, आगामी पीढिय़ों के लिए एक मिशाल कायम करें।  उस्ताद बिस्मिल्लाह खां दुनिया के एक मशहूर शहनाई वादक हैं, जिन्होंने संगीत के क्षेत्र में अपना अद्धितीय योगदान दिय

उत्तम साहित्य के प्रकाशक : पुरुषोत्तम दास मोदी

                        by  हिंदी ओलंपियाड फाउंडेशन  |   Hindi Olympiad Foundation उत्तम साहित्य के प्रकाशक : पुरुषोत्तम दास मोदी सामान्य जन तक अच्छा साहित्य पहुँचाने के लिए लेखक, प्रकाशक और विक्रेता के बीच सन्तुलन और समझ होनी अति आवश्यक है। श्री पुरुषोत्तम दास मोदी एक ऐसे प्रकाशक थे, जिन्होंने प्रकाशन व्यवसाय में अच्छी प्रतिष्ठा पायी। उनका जन्म 19 अगस्त, 1928 को गोरखपुर में हुआ था। पुरुषोत्तम मास में जन्म लेेने से उनका यह नाम रखा गया। मोदी जी की रुचि छात्र जीवन से ही साहित्य की ओर थी। उनकी सारी शिक्षा गोरखपुर में हुई। उन्होंने हिन्दी में एम.ए. किया। विद्यालयों में होने वाले साहित्यिक-सांस्कृतिक कार्यक्रमों में वे सदा आगे रहते थे। 1945 में उनके संयोजन में सेण्ट एण्ड्रूज कालेज में विराट कवि सम्मेलन हुआ, जिसमें माखनलाल चतुर्वेदी, रामधारी सिंह दिनकर, सुभद्रा कुमारी चौहान, सुमित्रा कुमारी सिन्हा जैसे वरिष्ठ कवि पधारे। इसमें तब के युवा कवि धर्मवीर भारती, जगदीश गुप्त आदि ने भी काव्यपाठ किया। ऐसी गतिविधियों के कारण मोदी जी का सम्पर्क तत्कालीन श्रेष्ठ साहित्यकारों से हो गया। 1950 में शिक्षा पू

एक जीवन ऐसा भी - पेशवा बाजीराव

                       by  हिंदी ओलंपियाड फाउंडेशन  |   Hindi Olympiad Foundation अपराजेय नायक  : पेशवा बाजीराव  छत्रपति शिवाजी महाराज ने अपने भुजबल से एक विशाल भूभाग मुगलों से मुक्त करा लिया था। उनके बाद इस ‘स्वराज्य’ को सँभाले रखने में जिस वीर का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण योगदान रहा, उनका नाम था बाजीराव पेशवा। बाजीराव का जन्म 18 अगस्त, 1700 को अपने ननिहाल ग्राम डुबेर में हुआ था। उनके दादा श्री विश्वनाथ भट्ट ने शिवाजी महाराज के साथ युद्धों में भाग लिया था। उनके पिता बालाजी विश्वनाथ छत्रपति शाहू जी महाराज के महामात्य (पेशवा) थे। उनकी वीरता के बल पर ही शाहू जी ने मुगलों तथा अन्य विरोधियों को मात देकर स्वराज्य का प्रभाव बढ़ाया था। बाजीराव को बाल्यकाल से ही युद्ध एवं राजनीति प्रिय थी। जब वे छह वर्ष के थे, तब उनका उपनयन संस्कार हुआ। उस समय उन्हें अनेक उपहार मिले। जब उन्हें अपनी पसन्द का उपहार चुनने को कहा गया, तो उन्होंने तलवार को चुना। छत्रपति शाहू जी ने एक बार प्रसन्न होकर उन्हें मोतियों का कीमती हार दिया, तो उन्होंने इसके बदले अच्छे घोड़े की माँग की। घुड़साल में ले जाने पर उन्होंने सबसे तेज

एक जीवन ऐसा भी - मदन लाल धींगड़ा

                      by  हिंदी ओलंपियाड फाउंडेशन  |   Hindi Olympiad Foundation अमर बलिदानी मदन लाल धींगड़ा तेजस्वी तथा लक्ष्य प्रेरित लोग किसी के जीवन को कैसे बदल सकते हैं, मदन लाल धींगड़ा इसका उदाहरण है। उनका जन्म अमृतसर में हुआ था। उनके पिता तथा भाई वहाँ प्रसिद्ध चिकित्सक थे। बी.ए. करने के बाद मदनलाल को उन्होंने लन्दन भेज दिया। वहाँ उसे क्रान्तिकारी श्यामजी कृष्ण वर्मा द्वारा स्थापित ‘इण्डिया हाउस’ में एक कमरा मिल गया। उन दिनों विनायक दामोदर सावरकर भी वहीं थे। 10 मई, 1908 को इण्डिया हाउस में 1857 के स्वतन्त्रता संग्राम की अर्द्धशताब्दी मनायी गयी। उसमें बलिदानी वीरों को श्रद्धांजलि  दी गयी तथा सभी को स्वाधीनता के बैज भेंट दिये गये। सावरकर जी के भाषण ने मदनलाल के मन में हलचल मचा दी। अगले दिन बैज लगाकर वह जब कालेज गया, तो अंग्रेज छात्र मारपीट करने लगे। धींगड़ा का मन बदले की आग में जल उठा। उसने वापस आकर सावरकर जी को सब बताया। उन्होंने पूछा, क्या तुम कुछ कष्ट उठा सकते हो ? मदनलाल ने अपना हाथ मेज पर रख दिया। सावरकर के हाथ में एक सूजा था। उन्होंने वह उसके हाथ पर दे मारा। सूजा एक क्षण में

वीरता एवं शौर्य की गायिका - सुभद्रा कुमारी चौहान

                      by  हिंदी ओलंपियाड फाउंडेशन  |   Hindi Olympiad Foundation वीरता एवं शौर्य की गायिका - सुभद्रा कुमारी चौहान   ‘खूब लड़ी मरदानी वह तो झांसी वाली रानी थी’ कविता की लेखक सुभद्रा कुमारी चौहान का जन्म 16 अगस्त, 1904 (नागपंचमी) को प्रयाग (उ.प्र.) के पास ग्राम निहालपुर में ठाकुर रामनाथ सिंह के घर में हुआ था। उन्हें बचपन से ही कविता लिखने का शौक था। प्रसिद्ध लेखिका महादेवी वर्मा प्रयाग में उनकी सहपाठी थीं। दोनों ने ही आगे चलकर खूब प्रसिद्धि प्राप्त की। 15 वर्ष की अवस्था मेें ठाकुर लक्ष्मण सिंह से विवाह के बाद वे जबलपुर आ गयीं। प्रयाग सदा से ही हिन्दी साहित्य का गढ़ तथा कई प्रसिद्ध साहित्यकारों की कर्मभूमि रहा है। जबलपुर भी मध्य भारत की संस्कारधानी कहा जाता है। सुभद्रा जी के व्यक्तित्व में इन दोनों स्थानों की सुगंध दिखाई देती है।  ठाकुर लक्ष्मण सिंह स्वाधीनता संग्राम में सक्रिय थे। वे कविता भी लिखते थे, पर सुभद्रा जी का काव्य कौशल देखकर उन्होंने कविता लिखना बंद कर दिया। इतना ही नहीं,  उन्होंने सुभद्रा जी को उच्च शिक्षा प्राप्त करने और सार्वजनिक जीवन में आने को प्रेरित किया

एक जीवन ऐसा भी - अरविन्द घोष

                     by  हिंदी ओलंपियाड फाउंडेशन  |   Hindi Olympiad Foundation स्वतन्त्रता के उद्घोषक  : श्री अरविन्द   भारतीय स्वाधीनता संग्राम में श्री अरविन्द (Sri Aurobindo) का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। उनका बचपन घोर विदेशी और विधर्मी वातावरण में बीता, पर पूर्वजन्म के संस्कारों के बल पर वे महान आध्यात्मिक पुरुष कहलाये। उनका जन्म 15 अगस्त, 1872 को डा. कृष्णधन घोष के घर में हुआ था। उन दिनों बंगाल का बुद्धिजीवी और सम्पन्न वर्ग ईसाइयत से अत्यधिक प्रभावित था। वे मानते थे कि हिन्दू धर्म पिछड़ेपन का प्रतीक है। भारतीय परम्पराएँ अन्धविश्वासी और कूपमण्डूक बनाती हैं। जबकि ईसाई धर्म विज्ञान पर आधारित है। अंग्रेजी भाषा और राज्य को ऐसे लोग वरदान मानते थे। डा. कृष्णधन घोष भी इन्हीं विचारों के समर्थक थे। वे चाहते थे कि उनके बच्चों पर भारत और भारतीयता का जरा भी प्रभाव न पड़े। वे अंग्रेजी में सोचें, बोलें और लिखें। इसलिए उन्होंने अरविन्द को मात्र सात वर्ष की अवस्था में इंग्लैण्ड भेज दिया। अरविन्द असाधारण प्रतिभा के धनी थे।उन्होंने अपने अध्ययन काल में अंग्रेजों के मस्तिष्क का भी आन्तरिक अध्ययन किया।

एक जीवन ऐसा भी - शहीद सरदार बन्ता सिंह

                    by  हिंदी ओलंपियाड फाउंडेशन  |   Hindi Olympiad Foundation  शहीद सरदार बन्ता सिंह  अपनी मृत्यु की बात सुनते ही अच्छे से अच्छे व्यक्ति का दिल बैठ जाता है। उसे कुछ खाना-पीना अच्छा नहीं लगता, पर भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम में ऐसे क्रान्तिकारी भी हुए हैं, फाँसी की तिथि निश्चित होते ही प्रसन्नता से जिनका वजन बढ़ना शुरू हो गया। ऐसे ही एक वीर थे सरदार बन्तासिंह। बन्तासिंह का जन्म 1890 में ग्राम सागवाल (जालन्धर, पंजाब) में हुआ था। 1904-05 में काँगड़ा में भूकम्प के समय अपने मित्रों के साथ बन्तासिंह सेवाकार्य में जुटे रहे। पढ़ाई पूरी कर वे चीन होते हुए अमरीका चले गये। वहाँ उनका सम्पर्क गदर पार्टी से हुआ। उनकी योजना से वे फिर भारत आ गये। एक बार लाहौर के अनारकली बाजार में एक थानेदार ने उनकी तलाशी लेनी चाही। बन्तासिंह ने उसे टालना चाहा, पर वह नहीं माना। उसकी जिद देखकर बन्तासिंह ने आव देखा न ताव, पिस्तौल निकालकर दो गोली उसके सिर में उतार दी। थानेदार वहीं ढेर हो गया। अब बन्तासिंह का फरारी जीवन शुरू हो गया। एक दिन उनका एक प्रमुख साथी प्यारासिंह पकड़ा गया। क्रान्तिकारियों ने छानबीन की,

एक जीवन ऐसा भी - डॉ. विक्रम साराभाई

                    by  हिंदी ओलंपियाड फाउंडेशन  |   Hindi Olympiad Foundation महान वैज्ञानिक डॉ. विक्रम साराभाई जिस समय देश अंग्रेजों के चंगुल से स्वतन्त्र हुआ, तब भारत में विज्ञान सम्बन्धी शोध प्रायः नहीं होते थे। गुलामी के कारण लोगों के मानस में यह धारणा बनी हुई थी कि भारतीय लोग प्रतिभाशाली नहीं है। शोध करना या नयी खोज करना इंग्लैण्ड, अमरीका, रूस, जर्मनी, फ्रान्स आदि देशों का काम है। इसलिए मेधावी होने पर भी भारतीय वैज्ञानिक कुछ विशेष नहीं कर पा रहे थे। पर स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद देश का वातावरण बदला। ऐसे में जिन वैज्ञानिकों ने अपने परिश्रम और खोज के बल पर विश्व में भारत का नाम ऊँचा किया, उनमें डॉ. विक्रम साराभाई का नाम बड़े आदर से लिया जाता है। उन्होंने न केवल स्वयं गम्भीर शोध किये, बल्कि इस क्षेत्र में आने के लिए युवकों में उत्साह जगाया और नये लोगों को प्रोत्साहन दिया। भारत के पूर्व राष्ट्रपति डॉ. कलाम ऐसे ही लोगों में से एक हैं। डॉ. साराभाई का जन्म 12 अगस्त, 1919 को कर्णावती (अमदाबाद, गुजरात) में हुआ था। पिता श्री अम्बालाल और माता श्रीमती सरला बाई ने विक्रम को अच्छे संस्कार दिये

एक जीवन ऐसा भी - दुर्गादास राठौड़

                   by  हिंदी ओलंपियाड फाउंडेशन  |   Hindi Olympiad Foundation मारवाड़ के रक्षक वीर दुर्गादास राठौड़   अपनी जन्मभूमि मारवाड़ को मुगलों के आधिपत्य से मुक्त कराने वाले वीर दुर्गादास राठौड़ का जन्म 13 अगस्त, 1638 को ग्राम सालवा में हुआ था। उनके पिता जोधपुर राज्य के दीवान श्री आसकरण तथा माता नेतकँवर थीं। आसकरण की अन्य पत्नियाँ नेतकँवर से जलती थीं। अतः मजबूर होकर आसकरण ने उसे सालवा के पास लूणवा गाँव में रखवा दिया। छत्रपति शिवाजी की तरह दुर्गादास का लालन-पालन उनकी माता ने ही किया। उन्होंने दुर्गादास में वीरता के साथ-साथ देश और धर्म पर मर-मिटने के संस्कार डाले। उस समय मारवाड़ में राजा जसवन्त सिंह (प्रथम) शासक थे। एक बार उनके एक मुँहलगे दरबारी राईके ने कुछ उद्दण्डता की। दुर्गादास से सहा नहीं गया। उसने सबके सामने राईके को कठोर दण्ड दिया। इससे प्रसन्न होकर राजा ने उन्हें निजी सेवा में रख लिया और अपने साथ अभियानों में ले जाने लगे। एक बार उन्होंने दुर्गादास को ‘मारवाड़ का भावी रक्षक’ कहा, पर वीर दुर्गादास सदा स्वयं को मारवाड़ की गद्दी का सेवक ही मानते थे। उस समय उत्तर भारत में औरंगजेब प्रभ

एक जीवन ऐसा भी - मैथिलीशरण गुप्त

                  by  हिंदी ओलंपियाड फाउंडेशन  |   Hindi Olympiad Foundation राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त   मस्तक ऊँचा हुआ मही का, धन्य हिमालय का उत्कर्ष। हरि का क्रीड़ा-क्षेत्र हमारा, भूमि-भाग्य-सा भारतवर्ष॥ यों तो दुनिया की हर भाषा और बोली में काव्य रचने वाले कवि होते हैं। भारत भी इसका अपवाद नहीं हैं, पर अपनी रचनाओं से राष्ट्रीय स्तर पर ख्याति पाने वाले कवि कम ही होते हैं। श्री मैथिलीशरण गुप्त हिन्दी भाषा के एक ऐसे ही महान कवि थे, जिन्हें राष्ट्रकवि का गौरव प्रदान किया गया। श्री मैथिलीशरण गुप्त का जन्म चिरगाँव (झाँसी, उ.प्र.) में तीन अगस्त, 1886 को सेठ रामचरणदास कनकने के घर में हुआ था। घर में जमींदारी और घी की आढ़त थी। ऐसे सम्पन्न वातावरण में उनका बचपन सुखपूर्वक बीता। उन दिनों व्यापारी अपना व्यापारिक हिसाब-किताब प्रायः उर्दू में रखते थे। अतः इनके पिता ने प्रारम्भिक शिक्षा के लिए इन्हें मदरसे में भेज दिया। वहाँ मैथिलीशरण गुप्त अपने भाई सियाराम के साथ जाते थे। पर मदरसे में उनका मन नहीं लगता था। वे बुन्देलखण्ड की सामान्य वेशभूषा अर्थात ढीली धोती-कुर्ता, कुर्ते पर देशी कोट, कलीदार और लाल म