Skip to main content

इतिहास के झरोखों से - देशद्रोही का वध

                          by हिंदी ओलंपियाड फाउंडेशन | Hindi Olympiad Foundation


Kanailal Dutt (2nd from right) and Satyen Basu (4th from right), under arrest after assassinating Naren Goswami.

देशद्रोही का वध 

स्वाधीनता प्राप्ति के प्रयत्न में लगे क्रांतिकारियों को जहां एक ओर अंग्रेजों ने लड़ना पड़ता था, वहां कभी-कभी उन्हें देशद्रोही भारतीय, यहां तक कि अपने गद्दार साथियों को भी दंड देना पड़ता था।

बंगाल के प्रसिद्ध अलीपुर बम कांड में कन्हाईलाल दत्त,  सत्येन्द्रनाथ बोस तथा नरेन्द्र गोस्वामी गिरफ्तार हुए थे। अन्य भी कई लोग इस कांड में शामिल थे, जो फरार हो गयेे। पुलिस ने इन तीन में से एक नरेन्द्र को मुखबिर बना लिया। उसने कई साथियों के पते-ठिकाने बता दिये। इस चक्कर में कई निरपराध लोग भी पकड़ लिये गये। अतः कन्हाई और सत्येन्द्र ने उसे सजा देने का निश्चय किया और एक पिस्तौल जेल में मंगवा ली।

सुरक्षा की दृष्टि से पुलिस ने नरेन्द्र गोस्वामी को जेल में सामान्य वार्ड की बजाय एक सुविधाजनक यूरोपीय वार्ड में रख दिया था। एक दिन कन्हाई बीमारी का बहाना बनाकर अस्पताल पहुंच गया। कुछ दिन बाद सत्येन्द्र भी पेट दर्द के नाम पर वहां आ गया। अस्पताल उस यूरोपीय वार्ड के पास था, जहां नरेन्द्र रह रहा था। एक-दो दिन बाद सत्येन्द्र ने ऐसा प्रदर्शित किया, मानो वह इस जीवन से तंग आकर मुखबिर बनना चाहता है। उसने नरेन्द्र से मिलने की इच्छा भी व्यक्त की। यह सुनकर नरेन्द्र को बहुत प्रसन्नता हुई।

31 अगस्त, 1908 को नरेन्द्र जेल के एक अधिकारी हिंगिस के साथ उससे मिलने अस्पताल चला गया। सत्येन्द्र अस्पताल की पहली मंजिल पर उसकी प्रतीक्षा कर रहा था। वहां कन्हाई को देखकर एक बार नरेन्द्र को शक हुआ, पर फिर वह सत्येन्द्र के संकेत पर हिंगिस को पीछे छोड़कर उनसे एकांत वार्ता करने के लिए कमरे से बाहर बरामदे में आ गया।

कन्हाई और सत्येन्द्र तो इस अवसर की प्रतीक्षा में ही थे। मौका देखकर कन्हाई ने नरेन्द्र गोस्वामी पर गोली दाग दी। वह चिल्लाते हुए नीचे की ओर भागा। इस पर सत्येन्द्र ने उसे पकड़ लिया। गोली की आवाज सुनकर हिंगिस और एक अन्य जेल अधिकारी लिंटन आ गये। लिंटन ने सत्येन्द्र को गिराकर कन्हाई को जकड़ लिया। इस पर कन्हाई ने पिस्तौल की नाल उसके सिर में दे मारी। इस हाथापाई में कई गोलियां व्यर्थ हो गयीं। अब केवल एक गोली शेष थी। कन्हाई ने झटके से स्वयं को छुड़ाकर बची हुई गोली नरेन्द्र पर दाग दी। इस बार निशाना ठीक लगा और देशद्रोही धरती पर लुढ़क गया।

दोनों ने अपना उद्देश्य पूरा होने पर समर्पण कर दिया। मुकदमे में कन्हाई ने अपना अपराध स्वीकार कर किसी वकील की सहायता लेने से मना कर दिया। अतः उसे फांसी की सजा सुनाई गयी। न्यायालय ने सत्येन्द्र को फांसी योग्य अपराधी नहीं माना। शासन ने इसकी अपील ऊपर के न्यायालय में की। वहां से सत्येन्द्र के लिए भी फांसी की सजा घोषित कर दी गयी।

अलीपुर केन्द्रीय कारागार में 10 नवम्बर, 1908 को कन्हाई को फांसी दी गयी। वह इतना मस्त था कि फांसी वाले दिन तक उसका भार 16 पौंड बढ़ गया। फांसी वाली रात वह इतनी गहरी नींद में सोया कि उसे आवाज देकर जगाना पड़ा। उसके शव की विशाल शोभायात्रा निकालकर चंदन के ढेर पर उसका दाह संस्कार किया गया। अंत्यक्रिया पूरी होने तक हजारों लोग वहां डटे रहे। चिता शांत होने पर लोगों ने भस्म से तिलक किया। सैकड़ों लोगों ने भस्म के ताबीज बच्चों के हाथ पर बांधे। हजारों ने उसे पूजागृह में रख लिया।

21 नवम्बर, 1908 को सत्येन्द्र को भी फांसी दे दी गयी। कन्हाई की शवयात्रा से घबराये शासन ने उसका शव परिवार वालों को न देकर जेल में ही उसका दाह संस्कार कर दिया। 

Comments

Popular posts from this blog

एक जीवन ऐसा भी - अहिल्याबाई होल्कर

           by  हिंदी ओलंपियाड फाउंडेशन  |   Hindi Olympiad Foundation तपस्वी राजमाता अहल्याबाई होल्कर भारत में जिन महिलाओं का जीवन आदर्श, वीरता, त्याग तथा देशभक्ति के लिए सदा याद किया जाता है,  उनमें रानी अहिल्याबाई होल्कर का नाम प्रमुख है। उनका जन्म 31 मई, 1725 को ग्राम छौंदी (अहमदनगर, महाराष्ट्र) में एक साधारण कृषक परिवार में हुआ था। इनके पिता श्री मनकोजी राव शिन्दे परम शिवभक्त थे। अतः यही संस्कार बालिका अहल्या पर भी पड़े। एक बार इन्दौर के राजा मल्हारराव होल्कर ने वहां से जाते हुए मन्दिर में हो रही आरती का मधुर स्वर सुना। वहां पुजारी के साथ एक बालिका भी पूर्ण मनोयोग से आरती कर रही थी। उन्होंने उसके पिता को बुलवाकर उस बालिका को अपनी पुत्रवधू बनाने का प्रस्ताव रखा। मनकोजी राव भला क्या कहते, उन्होंने सिर झुका दिया। इस प्रकार वह आठ वर्षीय बालिका इन्दौर के राजकुंवर खांडेराव की पत्नी बनकर राजमहलों में आ गयी। इन्दौर में आकर भी अहल्या पूजा एवं आराधना में रत रहती। कालान्तर में उन्हें दो पुत्री तथा एक पुत्र की प्राप्ति हुई। 1754 में उनके पति खांडेराव एक युद्ध में मारे गये। 1766 में उनके ससु

हिंदी के पुरोधा - प्रकृति के सुकुमार कवि सुमित्रानंदन पंत

          by  हिंदी ओलंपियाड फाउंडेशन  |   Hindi Olympiad Foundation Credit: Souvik Das कवि सुमित्रानंदन पंत अपनी कविता के माध्यम से प्रकृति की सुवास सब ओर बिखरने वाले  कवि श्री सुमित्रानंदन पंत का जन्म कौसानी (जिला बागेश्वर, उत्तराखंड) में 20 मई, 1900 को हुआ था। जन्म के कुछ ही समय बाद मां का देहांत हो जाने से उन्होंने प्रकृति को ही अपनी मां के रूप में देखा और जाना।  दादी की गोद में पले बालक का नाम गुसाई दत्त रखा गया; पर कुछ बड़े होने पर उन्होंने स्वयं अपना नाम सुमित्रानंदन रख लिया। सात वर्ष की अवस्था से वे कविता लिखने लगे थे। कक्षा सात में पढ़ते हुए उन्होंने नेपोलियन का चित्र देखा और उसके बालों से प्रभावित होकर लम्बे व घुंघराले बाल रख लिये। प्राथमिक शिक्षा के बाद वे बड़े भाई देवीदत्त के साथ काशी आकर क्वींस कॉलिज में पढे़। इसके बाद प्रयाग से उन्होंने इंटरमीडियेट उत्तीर्ण किया। 1921 में ‘असहयोग आंदोलन’ के दौरान जब गांधी जी ने सरकारी विद्यालय, नौकरी, न्यायालय आदि के बहिष्कार का आह्नान किया, तो उन्होंने पढ़ाई छोड़ दी और घर पर रहकर ही हिन्दी, संस्कृत, बंगला और अंग्रेजी का अध्ययन किया।  प्र

एक जीवन ऐसा भी - क्रांतिवीर सुखदेव

        by  हिंदी ओलंपियाड फाउंडेशन  |   Hindi Olympiad Foundation क्रांतिवीर सुखदेव थापर स्वतन्त्रता संग्राम के समय उत्तर भारत में क्रान्तिकारियों की दो त्रिमूर्तियाँ बहुत प्रसिद्ध हुईं। पहली चन्द्रशेखर आजाद, रामप्रसाद बिस्मिल तथा अशफाक उल्ला खाँ की थी, जबकि दूसरी भगतसिंह, सुखदेव तथा राजगुरु की थी। इनमें से सुखदेव का जन्म ग्राम नौघरा (जिला लायलपुर, पंजाब, वर्तमान पाकिस्तान) में 15 मई, 1907 को हुआ था। इनके पिता प्रसिद्ध सामाजिक कार्यकर्ता श्री रामलाल थापर तथा माता श्रीमती रल्ली देई थीं। सुखदेव के जन्म के दो साल बाद ही पिता का देहान्त हो गया। अतः इनका लालन-पालन चाचा श्री अचिन्तराम थापर ने किया। सुखदेव के जन्म के समय वे जेल में मार्शल लाॅ की सजा भुगत रहे थे। ऐसे क्रान्तिकारी वातावरण में सुखदेव बड़ा हुए।  जब वह तीसरी कक्षा में थे, तो गवर्नर उनके विद्यालय में आये। प्रधानाचार्य के आदेश पर सब छात्रों ने गवर्नर को सैल्यूट दिया; पर सुखदेव ने ऐसा नहीं किया। जब उनसे पूछताछ हुई, तो उन्होंने साफ कह दिया कि मैं किसी अंग्रेज को प्रणाम नहीं करूँगा। आगे चलकर सुखदेव और भगतसिंह मिलकर लाहौर में क्रान्त

एक जीवन ऐसा भी - सर एडमंड हिलेरी

          by  हिंदी ओलंपियाड फाउंडेशन  |   Hindi Olympiad Foundation पर्वत प्रेमी सर एडमंड हिलेरी देवातात्मा हिमालय अध्यात्म प्रेमियों की तरह खतरों के खिलाडि़यों को भी अपनी ओर आकृष्ट करता है। 8,848 मीटर ऊंचे, विश्व के सर्वोच्च पर्वत शिखर सागरमाथा (माउंट एवरेस्ट) पर नेपाली शेरपा तेनसिंग के साथ सर्वप्रथम चढ़ने वाले सर एडमंड हिलेरी ऐसे ही एक साहसी पर्वतारोही थे। हिलेरी का जन्म न्यूजीलैंड के आकलैंड में 20 जुलाई, 1919 को एक किसान परिवार में हुआ था। उन्होंने मधुमक्खी पालन को व्यवसाय के रूप में अपनाया; पर खतरों से खेलने का स्वभाव होने के कारण न्यूजीलैंड के पर्वत उन्हें सदा आकर्षित करते थे। 1939 में उन्होंने आल्पस पर्वत पर चढ़ाई की और उसके बाद न्यूजीलैंड के सब पहाड़ों को जीता। उन्होंने एक वायुसैनिक के नाते द्वितीय विश्व युद्ध में अपने देश की ओर से भाग भी लिया। हिलेरी के जीवन का सबसे महत्वपूर्ण दिन 29 मई, 1953 था, जब उन्होंने सर्वप्रथम सागरमाथा के शिखर पर झंडा फहराया। इसके बाद तो साहसिक अभियानों पर जाने का उन्हें चस्का ही लग गया। सागरमाथा के बाद उन्होंने हिमालय सहित विश्व की दस और प्रमुख चो

एक जीवन ऐसा भी - मिसाइल मैन डॉ. अब्दुल कलाम

                                 by  हिंदी ओलंपियाड फाउंडेशन  |   Hindi Olympiad Foundation मिसाइल मैन डॉ. अब्दुल कलाम क्या हम कल्पना कर सकते हैं कि उस युवक के मन पर क्या बीती होगी, जो वायुसेना में विमान चालक बनने की न जाने कितनी सुखद आशाएं लेकर देहरादून गया था; पर परिणामों की सूची में उसका नाम नवें क्रमांक पर था, जबकि चयन केवल आठ का ही होना था। कल्पना करने से पूर्व हिसाब किताब में यह भी जोड़ लें कि मछुआरे परिवार के उस युवक ने नौका चलाकर और समाचारपत्र बांटकर जैसे-तैसे अपनी शिक्षा पूरी की थी। देहरादून आते समय केवल अपनी ही नहीं, तो अपने माता-पिता और बड़े भाई की आकांक्षाओं का मानसिक बोझ भी उस पर था, जिन्होंने अपनी  अनेक आवश्यकताएं ताक पर रखकर उसे पढ़ाया था, पर उसके सपने धूल में मिल गये। निराशा के इन क्षणों में वह जा पहुंचा ऋषिकेश, जहां जगतकल्याणी मां गंगा की पवित्रता, पूज्य स्वामी शिवानन्द के सान्निध्य और श्रीमद्भगवद्गीता के सन्देश ने उसेे नये सिरे से कर्मपथ पर अग्रसर किया। उस समय किसे मालूम था कि नियति ने उसके साथ मजाक नहीं किया, अपितु उसके भाग्योदय के द्वार स्वयं अपने हाथों से खोल दिये