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Showing posts from July, 2022

एक जीवन ऐसा भी - प्रेमचन्द

                  by  हिंदी ओलंपियाड फाउंडेशन  |   Hindi Olympiad Foundation उपन्यास सम्राट   : प्रेमचन्द उपन्यास सम्राट प्रेमचंद का मूल नाम धनपतराय था। उनका जन्म ग्राम लमही (वाराणसी, उ.प्र.) में 31 जुलाई, 1880 को हुआ था। घर में उन्हें नवाब कहते थे। उत्तर प्रदेश तथा दिल्ली के निकटवर्ती क्षेत्र में मुस्लिम प्रभाव के कारण बोलचाल में प्रायः लोग उर्दू का प्रयोग करते थे। उन दिनों कई स्थानों पर पढ़ाई भी मदरसों में ही होती थी। इसीलिए 13 वर्ष की अवस्था तक वे उर्दू माध्यम से ही पढ़े। इसके बाद उन्होंने हिन्दी पढ़ना और लिखना सीखा। 1898 में कक्षा दस उत्तीर्ण कर वे चुनार में सरकारी अध्यापक बन गये। उन दिनों वहां एक गोरी पल्टन भी रहती थी। एक बार अंग्रेज दल और विद्यालय के दल का फुटब१ल मैच हो रहा था। विद्यालय वाले दल के जीतते ही छात्र उत्साहित होकर शोर करने लगे। इस पर एक गोरे सिपाही ने एक छात्र को लात मार दी। यह देखते ही धनपतराय ने मैदान की सीमा पर लगी झंडी उखाड़ी और उस सिपाही को पीटने लगे। यह देखकर छात्र भी मैदान में आ गये। छात्र और उनके अध्यापक का रोष देखकर अंग्रेज खिलाड़ी भाग खड़े हुए। प्रेमचंद छुआछ

एक जीवन ऐसा भी - ईश्वरचंद्र विद्यासागर

                 by  हिंदी ओलंपियाड फाउंडेशन  |   Hindi Olympiad Foundation सामाजिक क्रान्ति के अग्रदूत   : ईश्वरचंद्र विद्यासागर  भारत में 19वीं शती में जिन लोगों ने सामाजिक परिवर्त्तन में बड़ी भूमिका निभाई, उनमें श्री ईश्वरचन्द्र विद्यासागर का नाम बड़े आदर से लिया जाता है। उनका जन्म 26 सितम्बर, 1820 को ग्राम वीरसिंह (जिला मेदिनीपुर, बंगाल) में हुआ था। धार्मिक परिवार होने के कारण इन्हें अच्छे संस्कार मिले। नौ वर्ष की अवस्था में ये संस्कृत विद्यालय में प्रविष्ट हुए और अगले 13 वर्ष तक वहीं रहे। घर की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी; अतः खर्च निकालने के लिए इन्होंने दूसरों के घरों में भोजन बनाया और बर्तन साफ किये। रात में सड़क पर जलने वाले लैम्प के नीचे बैठकर ये पढ़ा करते थे। इस कठिन साधना का यह परिणाम हुआ कि इन्हें संस्कृत की प्रतिष्ठित उपाधि ‘विद्यासागर’ प्राप्त हुई। 1841 में वे कोलकाता के फोर्ट विलियम कालेज में पढ़ाने लगे। 1847 में वे संस्कृत महाविद्यालय में सहायक सचिव और फिर प्राचार्य बने। वे शिक्षा में विद्यासागर और स्वभाव में दया के सागर थे। एक बार उन्होंने देखा कि मार्ग में एक वृद्ध औ

कन्नड़ साहित्य के साधक - डा. भैरप्पा

                by  हिंदी ओलंपियाड फाउंडेशन  |   Hindi Olympiad Foundation कन्नड़ साहित्य के साधक : डा. भैरप्पा भारतीय साहित्य परंपरा में हिंदी के साथ साथ प्रादेशिक भाषाओं का भी विशेष योगदान है। कन्नड़ भाषा में अपने उपन्यासों की विशिष्ट शैली एवं कथानक के कारण बहुचर्चित साहित्यकार डा. एस.एल. भैरप्पा का जन्म 26 जुलाई, 1931 को कर्नाटक के हासन जिले के सन्तेशिवर ग्राम के एक अत्यन्त निर्धन परिवार में हुआ। आठ वर्ष की अवस्था में एक घण्टे के अन्तराल में ही इनकी बहिन एवं बड़े भाई की प्लेग से मृत्यु हो गयी। कुछ वर्ष बाद ममतामयी माँ तथा छोटा भाई भी चल बसा। इस प्रकार भैरप्पा का कई बार मृत्यु से साक्षात्कार हुआ। इनके पिता कुछ नहीं करते थे। अतः इन्हें प्रायः भूखा सोना पड़ता था। अब इनकी देखभाल का जिम्मा इनके मामा पर था। पर वे अत्यन्त क्रूर एवं स्वार्थी थे। अध्ययन में रुचि के कारण भैरप्पा ने कभी अगरबत्ती बेचकर, कभी सिनेमा में द्वारपाल का काम कर, तो कभी दुकानों में हिसाब लिखकर पढ़ाई की। एक बार उन्होंने मुम्बई जाने का निर्णय लिया, पर पैसे न होने के कारण वे पैदल ही पटरी के किनारे-किनारे चल दिये। रास्ते मे

एक जीवन ऐसा भी - चंद्रशेखर आजाद

                by  हिंदी ओलंपियाड फाउंडेशन  |   Hindi Olympiad Foundation स्वातंत्र्य समर के अमर बलिदानी, युग-महानायक अमर शहीद चंद्रशेखर आजाद   "भारत की फ़िज़ाओं को सदा याद रहूँगा   आज़ाद था, आज़ाद हूँ, आज़ाद रहूँगा!" चन्द्रशेखर आजाद का जन्म 23 जुलाई 1906 को मध्यप्रदेश के भाभरा गांव में एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था। इनका पूरा नाम चन्द्रशेखर तिवारी और इनके पिता का नाम सीताराम तिवारी  व इनकी माता का नाम जागरणी देवी था। सीताराम तिवारी की पहली दो पत्नियों की मृत्यु हो गयी थी, जागरणी देवी उनकी तीसरी पत्नी थी। आज़ाद की माँ उन्हें संस्कृत का विद्वान बनाना चाहती थी. आजाद का बचपन भाभरा के भील जाति के बच्चों के साथ व्यतीत हुआ जहां उन्होंने तीर-कमान और निशाना लगाना सिखा। वर्ष 1921 में महात्मा गाँधी ने जब असहयोग आन्दोलन की घोषणा की थी तब चन्द्रशेखर की उम्र मात्र 15 वर्ष थी और वे उस आन्दोलन में शामिल हो गए थे। इस आन्दोलन में चन्द्रशेखर पहली बार गिरफ्तार हुए थे. इसके बाद चन्द्रशेखर को थाने ले जाकर हवालात में बंद कर दिया। दिसम्बर में कड़ाके की ठण्ड में आज़ाद को ओढ़ने–बिछाने के लिए कोई बिस्तर नहीं

एक जीवन ऐसा भी - लोकमान्य तिलक

               by  हिंदी ओलंपियाड फाउंडेशन  |   Hindi Olympiad Foundation स्वतन्त्रता आंदोलन में उग्रवाद के प्रणेता लोकमान्य तिलक बीसवीं सदी के प्रारम्भ में भारतीय स्वतन्त्रता के आन्दोलन में एक मंच के रूप में कार्यरत कांग्रेस में स्पष्टतः दो गुट बन गये थे। एक नरम तो दूसरा गरम दल कहलाता था। पहले के नेता गोपाल कृष्ण गोखले थे, तो दूसरे के लोकमान्य तिलक। इतिहास में आगे चलकर लाल-बाल-पाल नामक जो त्रयी प्रसिद्ध हुई, उसके बाल यही बाल गंगाधर तिलक थे, जो आगे चलकर लोकमान्य तिलक के नाम से प्रसिद्ध हुए। लोकमान्य तिलक का जन्म 23 जुलाई, 1856 को रत्नागिरी, महाराष्ट्र के एक साधारण किसान परिवार में हुआ था। बचपन से ही उनकी रुचि सामाजिक कार्यों में थी। वे भारत में अंग्रेजों के शासन को अभिशाप समझते थे तथा इसे उखाड़ फेंकने के लिए किसी भी मार्ग को गलत नहीं मानते थे। इन विचारों के कारण पूना में हजारों युवक उनके सम्पर्क में आये। इनमें चाफेकर बन्धु प्रमुख थे। तिलक जी की प्रेरणा से उन्होंने पूना के कुख्यात प्लेग कमिश्नर रैण्ड का वध किया और तीनों भाई फाँसी चढ़ गये। सन 1897 में महाराष्ट्र में प्लेग, अकाल और भूकम्प

एक जीवन ऐसा भी - नारायण श्याम

               by  हिंदी ओलंपियाड फाउंडेशन  |   Hindi Olympiad Foundation सिन्धी गजल के जन्मदाता नारायण श्याम सिन्धी भाषा के प्रसिद्ध कवि नारायण श्याम का जन्म अविभाजित भारत के खाही कासिम गांव में 22 जुलाई, 1922 को हुआ। उन्हें बचपन से ही कविता पढ़ने, सुनने और लिखने में रुचि थी। इस चक्कर में इंटर करते समय वे एक दिन परीक्षा देना ही भूल गये। विभाजन के बाद उनका परिवार दिल्ली आ गया। यहां उन्होंने डाक एवं तार विभाग में लिपिक पद पर काम प्रारम्भ किया। इसी विभाग में मुख्य लिपिक पद से वे सेवा निवृत्त भी हुए। नारायण ‘श्याम’ एक गंभीर एवं जिज्ञासु साहित्यकार थे। वे श्रेष्ठ कवियों की रचनाएं सुनकर वैसी ही लय और ताल अपनी कविताओं में लाने का प्रयास करते थे। सिन्धी भाषा के समकालीन कवियों में उनका नाम शाह अब्दुल लतीफ भिटाई के समकक्ष माना जाता है; पर विनम्र ‘श्याम’ ने स्वयं कभी इसे स्वीकार नहीं किया। जब कोई उनकी प्रशंसा करता, तो वे कहते थे - "गुणों की खान हो केवल, विकारों से हो बिल्कुल दूर न अपनी जिंदगी ऐसी, न अपनी शायरी ऐसी।।" प्रकृति प्रेमी होने के कारण उनकी रचनाओं में प्रकृति चित्रण भरपूर मात्

एक जीवन ऐसा भी - बटुकेश्वर दत्त

              by  हिंदी ओलंपियाड फाउंडेशन  |   Hindi Olympiad Foundation एक विस्मृत विप्लवी बटुकेश्वर दत्त यह इतिहास की विडम्बना है कि अनेक क्रान्तिकारी स्वतन्त्रता के युद्ध में सर्वस्व अर्पण करने के बाद भी अज्ञात या अल्पज्ञात ही रहे। ऐसे ही एक क्रान्तिवीर बटुकेश्वर दत्त का जन्म 18 नवम्बर, 1910 को ग्राम ओएरी खंडा घोष (जिला बर्दमान, बंगाल) में श्री गोष्ठा बिहारी दत्त के घर में हुआ था। वे एक दवा कंपनी में काम करते थे, जो बाद में कानपुर (उ.प्र.) में रहने लगे। इसलिए बटुकेश्वर दत्त की प्रारम्भिक शिक्षा पी.पी.एन हाईस्कूल कानपुर में हुई। उन्होंने अपने मित्रों के साथ ‘कानपुर जिमनास्टिक क्लब’ की स्थापना भी की थी। उन दिनों कानपुर क्रान्तिकारियों का एक बड़ा केन्द्र था। बटुकेश्वर अपने मित्रों में मोहन के नाम से प्रसिद्ध थे। भगतसिंह के साथ आठ अप्रैल,  1929 को दिल्ली के संसद भवन में बम फेंकने के बाद वे चाहते, तो भाग सकते थे, पर क्रान्तिकारी दल के निर्णय के अनुसार दोनों ने गिरफ्तारी दे दी। छह जून, 1929 को न्यायालय में दोनों ने एक लिखित वक्तव्य दिया, जिसमें क्रान्तिकारी दल की कल्पना, इन्कलाब जिन्दाबाद

एक जीवन ऐसा भी - अमर शहीद मंगल पांडे

             by  हिंदी ओलंपियाड फाउंडेशन  |   Hindi Olympiad Foundation आजादी के चिर उन्नायक : अमर शहीद  मंगल पांडे  अंग्रेजी शासन के विरुद्ध चले लम्बे संग्राम का बिगुल बजाने वाले पहले क्रान्तिवीर मंगल पांडे का जन्म 19 जुलाई 1827 ग्राम नगवा (बलिया, उत्तर प्रदेश) में हुआ था। युवावस्था में ही वे सेना में भर्ती हो गये थे। उन दिनों सैनिक छावनियों में गुलामी के विरुद्ध आग सुलग रही थी। अंग्रेज जानते थे कि हिन्दू गाय को पवित्र मानते हैं, जबकि मुसलमान सूअर से घृणा करते हैं। फिर भी वे सैनिकों को जो कारतूस देते थे, उनमें गाय और सूअर की चर्बी मिली होती थी। इन्हें सैनिक अपने मुँह से खोलते थे। ऐसा बहुत समय से चल रहा था; पर सैनिकों को इनका सच मालूम नहीं था। मंगल पांडे उस समय बैरकपुर में 34 वीं हिन्दुस्तानी बटालियन में तैनात थे। वहाँ पानी पिलाने वाले एक हिन्दू ने इसकी जानकारी सैनिकों को दी। इससे सैनिकों में आक्रोश फैल गया। मंगल पांडे से रहा नहीं गया। 29 मार्च, 1857 को उन्होंने विद्रोह कर दिया। एक भारतीय हवलदार मेजर ने जाकर सार्जेण्ट मेजर ह्यूसन को यह सब बताया। इस पर मेजर घोड़े पर बैठकर छावनी की ओर च

एक जीवन ऐसा भी - दुर्गाबाई देशमुख

             by  हिंदी ओलंपियाड फाउंडेशन  |   Hindi Olympiad Foundation दुर्गाबाई   देशमुख आंध्र प्रदेश से स्वाधीनता समर में सर्वप्रथम कूदने वाली महिला दुर्गाबाई का जन्म 15 जुलाई, 1909 को राजमुंदरी जिले के काकीनाडा नामक स्थान पर हुआ था। इनकी माता श्रीमती कृष्णवेनम्मा तथा पिता श्री रामाराव थे। पिताजी का देहांत तो जल्दी ही हो गया था; पर माता जी की कांग्रेस में सक्रियता से दुर्गाबाई के मन पर बचपन से ही देशप्रेम एवं समाजसेवा के संस्कार पड़े। उन दिनों गांधी जी के आग्रह के कारण दक्षिण भारत में हिन्दी का प्रचार हो रहा था। दुर्गाबाई ने पड़ोस के एक अध्यापक से हिन्दी सीखकर महिलाओं के लिए एक पाठशाला खोल दी। इसमें उनकी मां भी पढ़ने आती थीं। इससे लगभग 500 महिलाओं ने हिन्दी सीखी। इसे देखकर गांधी जी ने दुर्गाबाई को स्वर्ण पदक दिया। गांधी जी के सामने दुर्गाबाई ने विदेशी वस्त्रों की होली भी जलाई। इसके बाद वे अपनी मां के साथ खादी के प्रचार में जुट गयीं। नमक सत्याग्रह में श्री टी.प्रकाशम के साथ सत्याग्रह कर वे एक वर्ष तक जेल में रहीं। बाहर आकर वे फिर आंदोलन में सक्रिय हो गयीं। इससे उन्हें फिर तीन वर्ष के

एक जीवन ऐसा भी - स्वामी करपात्री जी महाराज

             by  हिंदी ओलंपियाड फाउंडेशन  |   Hindi Olympiad Foundation विलक्षण संन्यासी करपात्री जी महाराज स्वामी करपात्री जी के नाम से प्रसिद्ध संन्यासी का बचपन का नाम हरनारायण था। इनका जन्म सात जुलाई, 1907 ग्राम भटनी, उत्तर प्रदेश में पण्डित रामनिधि तथा श्रीमती शिवरानी के घर में हुआ था। सनातन धर्म के अनुयायी इनके पिता श्रीराम एवं भगवान शंकर के परमभक्त थे। वे प्रतिदिन पार्थिव पूजा एवं रुद्राभिषेक करते थे। यही संस्कार बालक हरनारायण पर भी पड़े। बाल्यावस्था में इन्होंने संस्कृत का गहन अध्ययन किया। एक बार इनके पिता इन्हें एक ज्योतिषी के पास ले गये और पूछा कि ये बड़ा होकर क्या बनेगा ? ज्योतिषी से पहले ही ये बोल पड़े, मैं तो बाबा बनूँगा। वास्तव में बचपन से ही इनमें विरक्ति के लक्षण नजर आने लगे थे। समाज में व्याप्त अनास्था एवं धार्मिक मर्यादा के उल्लंघन को देखकर इन्हें बहुत कष्ट होता था। ये कई बार घर से चले गये; पर पिता जी इन्हें फिर ले आते थे। जब ये कुछ बड़े हुए, तो इनके पिता ने इनका विवाह कर दिया। उनका विचार था कि इससे इनके पैरों में बेड़ियाँ पड़ जायेंगी; पर इनकी रुचि इस ओर नहीं थी। इनके